टैरिफ़ की तानाशाही और भारत का सशक्त प्रतिकार

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टैरिफ़ की तानाशाही और भारत का सशक्त प्रतिकार

टैरिफ़ की तानाशाही और भारत का सशक्त प्रतिकार
Image courtesy: DW Samachar 

भारत और अमेरिका के रिश्ते अक्सर उतार-चढ़ाव से गुज़रे हैं। कभी गहरी साझेदारी की तस्वीर उभरती है तो कभी तनाव की लकीरें साफ़ दिखाई देती हैं। डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति रहते हुए यह तनाव नई ऊँचाई पर पहुँचा। ट्रम्प ने भारत से आयातित वस्तुओं पर अचानक भारी टैरिफ़ थोप दिए, मानो यह जताना चाहते हों कि वैश्विक राजनीति में ताक़तवर की ही चलती है। इस कदम को कई विशेषज्ञों ने एक तरह की आर्थिक धौंसपट्टी या “गुंडागर्दी” की राजनीति कहा।

टैरिफ़ का असर: व्यापारी से मज़दूर तक

ट्रम्प के आदेश के बाद कपड़ा, चमड़ा, आभूषण और कृषि आधारित भारतीय उत्पादों पर शुल्क दरें बढ़ाकर 25 से 50 प्रतिशत तक कर दी गईं। यह वृद्धि मामूली नहीं थी। उदाहरण के लिए, अगर किसी भारतीय व्यापारी का माल 100 डॉलर में अमेरिका पहुँचता था, तो अब अमेरिकी उपभोक्ता को वही चीज़ 125 या 150 डॉलर में मिलेगी। ऐसे में वहाँ की दुकानें भारतीय सामान खरीदने से हिचकने लगीं। 


दिल्ली के एक व्यापारी ने अपनी पीड़ा जताते हुए कहा—“हमारे दाम पहले ही चीन और वियतनाम से मुकाबले में ऊँचे हैं। अब यदि ट्रम्प 50% और जोड़ देंगे तो हमारे पास ग्राहक कैसे बचेंगे?” यह दर्द केवल कुछ कंपनियों का नहीं, बल्कि लाखों कारीगरों, मजदूरों और किसानों का था, जो इस निर्यात-श्रृंखला से जुड़े हुए हैं।


ट्रम्प को शायद उम्मीद थी कि भारत दबाव में आ जाएगा और अमेरिकी शर्तें मान लेगा। लेकिन भारत ने बिल्कुल अलग रास्ता चुना। नई दिल्ली से साफ़ संदेश गया—“भारत अपनी संप्रभुता और आर्थिक हितों पर किसी भी तरह का समझौता नहीं करेगा।” 


भारत सरकार ने तुरंत वैकल्पिक बाज़ार तलाशने शुरू किए। यूरोप, अफ्रीका और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में नए समझौते किए गए। घरेलू स्तर पर लॉजिस्टिक्स और उत्पादन क्षमता सुधारने की योजनाएँ तेज़ हुईं। साथ ही भारत ने अमेरिका को यह बताने के लिए कुछ अमेरिकी उत्पादों पर भी शुल्क बढ़ा दिए कि दबाव डालने की यह नीति इतनी आसान नहीं होगी।


शुरुआत में भारतीय निर्यातकों पर संकट गहराया। कई छोटे उद्योग बंद होने के कगार पर पहुँचे। लेकिन धीरे-धीरे दुनिया ने देखा कि भारत पीछे हटने वाला नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत ने ट्रम्प की नीति को “एकतरफ़ा और अनुचित” बताया। इससे वैश्विक धारणा भी बदलने लगी कि यह लड़ाई केवल भारत बनाम अमेरिका की नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण व्यापार बनाम दबाव की लड़ाई है।


भारतीय बाज़ार की विशालता और वहाँ मौजूद संभावनाओं ने अंततः अमेरिकी कंपनियों को बेचैन कर दिया। अमेरिका की बड़ी टेक और फार्मा कंपनियों ने वॉशिंगटन पर दबाव बनाया कि भारत जैसा ग्राहक खोना आत्मघाती होगा। खुद अमेरिकी किसान भी चिंतित हुए, क्योंकि भारत उनके लिए गेहूँ, सोयाबीन और सेब जैसी चीज़ों का बड़ा बाज़ार है।             


धीरे-धीरे ट्रम्प की स्थिति बदलनी पड़ी। जहाँ शुरुआत में वह ताक़त दिखाकर भारत को झुकाना चाहते थे, वहीं अंत में उन्हें बातचीत की मेज़ पर लौटना पड़ा। कहा जा सकता है कि उनकी आर्थिक “गुंडागर्दी” टिक नहीं पाई और उन्हें भारत की शर्तों और मज़बूती को स्वीकार करना पड़ा।


इस घटनाक्रम ने दुनिया के सामने भारत की नई छवि पेश की। एक ऐसा देश जो अब दबाव में आने वाला नहीं है, जो बराबरी पर बातचीत चाहता है और ज़रूरत पड़ने पर पलटवार भी कर सकता है। यह टकराव केवल व्यापार की लड़ाई नहीं था, बल्कि यह भारत के आत्मसम्मान और वैश्विक हैसियत की परीक्षा भी थी। 


भारत ने यह साबित कर दिया कि उसका बाज़ार अब केवल ग्राहकों की संख्या से नहीं, बल्कि उसकी राजनीतिक और कूटनीतिक ताक़त से भी महत्त्वपूर्ण है। यही वजह है कि अंत में अमेरिका को झुकना पड़ा।


ट्रम्प का टैरिफ़ भारत के लिए एक बड़ा झटका था, लेकिन उसने इसे अवसर में बदल दिया। भारत ने न केवल दबाव का सामना किया, बल्कि दुनिया को यह दिखाया कि वह बराबरी का खिलाड़ी है। इस पूरी कहानी से साफ़ होता है कि धमकाने और डराने की राजनीति लंबे समय तक टिकती नहीं, जबकि धैर्य, आत्मविश्वास और रणनीति अंततः जीत दिलाती है।

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